अश्रुबिन्दु


(पल्लिपुरं गांवचॊ साहित्यकार स्वर्गीय श्री रामचन्द्र शर्मान ह्यी कविता तॆलिच्चॆरिचॊ डाक्टर वी नागॊजी राव, अलॆप्पी गांवचॊ बी वामन बाळिगा अनि आलुवा गांवचॊ एम कॆ जनार्दन कामत हांगॆलॆ दॆहान्त विषय कॊरुन १९४४ वर्षा रचीलि)


घालॊमु घातकु तूवॆं दॆवा! दया सॊडून;
गॆलॊमू हा! पूज्य डाक्टर मामु आमका सॊडून;
व्हॆल्लॆं फारनु चॊरान तॆं अमगॆलॆं रतन;
जालॆ आमी सर्वै जन दीन भाग्यहीन।।
व्हॊडु म्हणु नामु तांका कांय पुणीय गर्व;
मूढ-कळचॆ व्हड-सान- तांका भावण्ड सर्व;
स्वन्त समुदाय क्षॆमु तांका व्हॊड धन;
अन्तरंग तांचॆं शुद्ध स्वार्थलॆश हीन।।
गॊड गॊड कारुण्यान तांगॆलॆं वचन;
आस सर्वॆय आतुरांक तांचॆरी विश्वासु;
दर्शनमात्रान मॆळता मनांतु आश्वासु;
श्लाघ्य गुण अश्शि मॆळनु अस्स कॊण अन्य?
स्वर्गवासि डाक्टरमामु धन्य महा धन्य।।

घालॊमु घातकु तूवॆं दॆवा! दया सॊडून;
गॆल्लॆमू हा! वन्द्य बाळमामु आमका सॊडून;
गॆल्लीं फारनु आमगॆलीं तीं चांग दॊनि मत्तीं;
वरली नित्य आमका व्हॊडि तांचवॆली भक्ति।।
सत्य महापथ्य तांका ज्ञान प्रिय धन,
कृत्य समुदाय सॆवा मन तान्तु लीन;
नामु तांका कॊणाचॆरीय नाममात्र द्वॆषु;
प्रॆमु तरी सर्वांचॆरिै भ्रातृनिर्विशॆषु।।
निर्मल हृदय तांचॆ विनयान नम्र;
कर्म सर्वॆय समुदायप्रणयान कम्र;
मनाक उज्वाडु दिवंचॆ तांगॆलॆ प्रसंग;
कनांतु वाजता आत्तंय मधुरमृदंग;
धन्य धन्य बालमामु पुण्य गुणाकर;
अन्य कॊण तांचवॆर वार कर्मधीर।।

घालॊमु घातकु तूवॆं दॆवा! दया सॊडून;
गॆल्लॊ मु कामत मामु व्हॊगी आमका सॊडून;
पडलॊ आमका अकस्मात व्हॊडलॊ एकु घायु;
मॊडलॊ समुदायभावुकाचॊ एकु पायु।।
सारस्वतवर्गाचॆरी तांका व्हॊडु स्नॆहु;
भूरि सुख सर्वांकॆय मॆळका मह्णु मॊहु;
दामु अस्स, नामु तांका नाममात्र हांव;
नॆमु जावनु दान धर्म गांवु भॊरनु नांव।।
मस्त घरांतु अतिथींक नित्य अन्न सत्र;
स्वस्थ मन सुप्रसन्न दीन दया सत्र;
तांतु मद्धॆं हन्त! तांका जिरलॊ पादशक्ति;
किन्तु अन्त पर्यन्त वरली मनॊभक्ति;
आमी हा! अधन्य; आमकां अनि खंय मॆळतली
काम्य सौम्य गुण मॆळनु असली पुत्तळि।।

दीवॊ महन्तानॊं, तुमका दॆवु आत्मशान्ति;
दीवॊ आमकां जीवितान्तु तुमची आत्मकान्ति;
जावॊ आमका नित्य तुमचॆ पावनस्मरण;
पावॊं आमचॆं मत ताजान सत्य उत्तॆजन।।
उप्पून काडलॆं दॆवान आमचॆ दॊळ्यां थाकून मात्र;
थापून पडलॆं हर्द्यान्तु आतंय तुमचॆं गात्र;
भक्तिपूर्ण आमचॆं मन तुमका सुखासन
नित्य आमी करताय तुंकां प्रॆमपुष्पार्चन।।
आमचॆ अन्तरंग भरनु दीर्घनिश्वसन;
तुम्चॆ वन्द्य विग्रहांक तॆचि नीरांजन
हन्त! महन्तानॊं; तुमच्या दिव्य चरणान्तु;
अन्त्य उपहारु एकु मूक अश्रुबिन्दु।।


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